उत्तराखण्ड की उच्च हिमालयी एवं जनजातीय भाषाओं का संरक्षण एवं अध्ययन
उत्तराखण्ड की उच्च हिमालयी एवं जनजातीय भाषाओं का संरक्षण एवं अध्ययन उत्तराखण्ड की उच्च हिमालयी एवं जनजातीय भाषाओं का संरक्षण एवं अध्ययन –
वेदों की ही तरह लोक भाषा साहित्य भी अपने मूल एवं वास्तविक रूप में श्रुति परम्परा से विकसित है। उत्तराखण्ड वैविध्य से भरपूर है यहां ऊंचाई चढ़ने के साथ ही न केवल भौगोलिक परिस्थितियां बदलती है वरन् हर एक पहाड़ी पार करने पर बोली-भाषा में भी अंतर आ जाता है। उत्तराखण्ड नीती-माणा, गुंजी-बर्फू से लेकर नेटवाड़-सांकरी और तराई तक भाषिक और सांस्कृतिक विविधता के रूप में कुमाउनी, गढ़वाली, जौनसारी, बुक्सा, राजी, रं, जोहारी, थारू, रवाल्टी, जौनपुरी, कौरवी, गुजरी, मारछा, तोलछा, शौका, दरमियां, चौंदासी, व्यासी, जाड़ आदि अनेक बोलियां एवं उपबोलियां प्रचलित है। इसको लिपिबद्ध करने के प्रयास कम हुए हैं। उत्तराखण्ड भाषा संस्थान द्वारा उत्तराखण्ड की लोक भाषा एवं बोलियों का अध्ययन करने हेतु शोध परियोजना तैयार की जानी प्रस्तावित है।
लाभार्थी:
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लाभ:
साहित्यकार, लेखक, पाठक
आवेदन कैसे करें
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